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अभ्र पर शहर की

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आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता! ढूंढ़ता वो सदियों सेे ललित रमणी का पता, अभ्र पर शहर की वो मंडराता विहंग सा, वारिद अम्बर पर ज्युँ लहराता तरिणी सा, रुचिर रमनी छुपकर विहँसती ज्युँ अम्बुद में चपला। आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता! जलधि सा तरल लोचन नभ को निहारता, छलक पड़ते सलिल तब निशाकर भी रोता, बीत जाती शर्वरी झेलती ये तन क्लेश यातना, खेलती हृदय से विहँसती ज्युँ वारिद में छुपी वनिता। आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता! अभ्र = आकाश, वारिद, अम्बुद=मेघ विहंग=पक्षी