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पुस्तक समीक्षा- "तेरी हँसी -कृष्ण विवर सी"

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कविता संग्रह- "तेरी हँसी -कृष्ण विवर सी" कवयित्री: पूनम सिन्हा "श्रेयसी" प्रकाशक: शिवना प्रकाशन स्नेह स्वरूप आदरणीय पूनम सिन्हा "श्रेयसी" से शुभकामनाओं सहित हस्ताक्षरित कविता संग्रह- " तेरी हँसी -कृष्ण विवर सी " की प्रति, जो इस वर्ष प्रकाशित उनकी 51 कविताओं का प्रथम स॔स्करण है, पाकर मन प्रसन्न हो गया। यूँ तो, कई साहित्यिक मंच पर हम साथ जुड़े हैं और उनकी कविताओं तथा क्रियात्मकता का रसास्वादन मिलता रहा है, परन्तु यह अवसर अत्यन्त ही सुखदाई है। वर्ष 2018 के प्रारम्भ में दिल्ली के प्रगति मैदान में 6-14 जनवरी के मध्य "विश्व पुस्तक मेला" का आयोजन और शिवना प्रकाशन के माध्यम से कविता संग्रह- " तेरी हँसी -कृष्ण विवर सी " के प्रथम संस्करण का विमोचन अवश्य ही यादगार पल रहा होगा। समारोह में जाने के पूर्व आदरणीय पूनम जी से हुई बातचीत तथा उसके पश्चात उन्ही के हस्ताक्षर से एक प्रति पाकर मन आह्लादित हो गया। आद्योपांत कविताओं के रसास्वादन पश्चात इसका उल्लेख भी अत्यंत आवश्यक है। यहाँ प्रस्तुत और एकत्रित की गई रचनाओं में

अवशेष

अवशेष लिए अन्तःमन में बचा हूँ कुछ मैं शेष, बीते से कुछ पल और मैं! धुंधली सी तेरी झलक और यादों के अवशेष! बचा हुआ हूँ शेष, जितना नम आँखों में विदाई के गीत ! बची हुई है जिजीविषा, जितनी किसी प्रतीक्षा में पदचापों की झूठी आहट ! बची हुई है मुस्कान, जितना मुर्झाने से पहले खिला हो चमकता फूल ! बचा हुआ है सपना, जितना किसी मरणासन्न के आँखों में आशा ! बचा हुआ है रास्ता, जितना किसी अंतिम यात्रा में श्मशान ! बचे हो कुछ मुझमें तुम! इन्हीं अवशेषों के बीच कहीं दूर जाती हुई, गुनगुनायी जाती धुन की तरह...

मृत्यु के उस पार

*उस पार का जीवन* मृत्यु के उस पार क्या है एक और जीवन आधार  या घटाटोप अंधकार,   तीव्र आत्मप्रकाश या क्षुब्ध अमित प्यास।    शरीर से निकलती चेतना  या मौत-सी मर्मांतक वेदना  एक पल है मिलन का  या सदियों की विरह यातना।   भाव के भंवर में डूबता होगा मन  या स्थिर शांत कर्मणा  दौड़ता-धूपता जीवन होगा  या शुद्ध साक्षी संकल्पना। प्रेम का उल्लास अमित  या विरह की निर्निमेष वेदना रात्रि का घुटुप तिमिर है  या हरदम प्रकाशित प्रार्थना। है शरीर का कोई विकल्प या है निर्विकार आत्मा है वहां भी सुख-दु:ख का संताप  या परम शांति की स्थापना। है वहां भी पाप-पुण्य का प्रसार  या निर्द्वंद्व अंतस की कामना  होता होगा रिश्तों का रिसाव  या शाश्वत प्रेम की भावना। 

अभ्र पर शहर की

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आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता! ढूंढ़ता वो सदियों सेे ललित रमणी का पता, अभ्र पर शहर की वो मंडराता विहंग सा, वारिद अम्बर पर ज्युँ लहराता तरिणी सा, रुचिर रमनी छुपकर विहँसती ज्युँ अम्बुद में चपला। आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता! जलधि सा तरल लोचन नभ को निहारता, छलक पड़ते सलिल तब निशाकर भी रोता, बीत जाती शर्वरी झेलती ये तन क्लेश यातना, खेलती हृदय से विहँसती ज्युँ वारिद में छुपी वनिता। आसक्ति का नीरद भ्रम की वात सा अभ्र पर मंडराता! अभ्र = आकाश, वारिद, अम्बुद=मेघ विहंग=पक्षी

नारी: ईश्वरीय एहसास

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एहसास खूबसूरती का जब ईश्वर को हुआ, श्रृष्टि निर्माता ने तब ही जन्म स्त्री को दिया। इक एहसास कोमलता का जब हुआ होगा, तब  उसने स्त्री का कोमल हृदय रचा होगा। जग के भूख प्यास की जब हुई होगी चिन्ता, तब उसने माता के आँचल में दूध भरा होगा। जब एहसास कोमल भाव की मन में जागी, ममत्व, स्त्रीत्व, वात्सल्य तब नारी को दिया। धैर्य, संकल्प, सहनशीलता, भंडार ग्यान का, सम्पूर्ण रूपेण नारी को उसने दे दिया होगा। चाँदनी का घमंड तोड़ने को ही शायद उसने, अकथनीय अवर्णनीय सुन्दरता नारी को दी। सुन्दरता को परिभाषित करते करते उसने, नारी रूप की परिकल्पना कर डाली होगी।

अक्सर

अक्सर अन्त:मानस मे एकाकीपन की कसक सी, अंतहीन अन्तर्द्वन्द अक्सर अन्तरआत्मा में पलती, मानस पटल पर अक्सर एक एहसास दम तोड़ती| अक्सर वो एकाकीपन बादल सा घिर आता मन में, दर्द का अंतहीन एहसास अकसर तब होता मन मैं, तप, साधना, योग धरी की धरी रह जाती जीवन में| अक्सर रह जाते ये एहसास अनुत्तरित अनछुए से, अंतहीन अनुभूति लहर बन उठती अक्सर मन से, तब मेरा एकाकीपन अधीर हो कुछ कहता मुझसे|

संध्या जीवन

ढ़ल रहा सांध्य गगन सा जीवन! क्षितिज सुधि स्वप्न रँगीले घन, भीनी सांध्य का सुनहला पन, संध्या का नभ से मूक मिलन, यह अश्रुमती हँसती चितवन! भर लाता ये सासों का समीर, जग से स्मृति के सुगन्ध धीर, सुरभित  हैं जीवन-मृत्यु  तीर, रोमों में पुलकित  कैरव-वन ! आदि-अन्त दोनों अब  मिलते, रजनी दिन परिणय से खिलते, आँसू हिम के सम कण ढ़लते, ध्रुव सा है यह स्मृति का क्षण!